खुला खत जीवित निर्भया का स्मृति शेष निर्भया के नाम(जरूर पढ़ें)

खुला ख़त निर्भया  के नाम (इस पत्र को जरूर पढ़ें)



प्रिय निर्भया,


कैसे पूछूँ तुमसे कि तुम कैसी हो? मैं जानती हूँ, अभी तक तुम घुटन से आज़ाद नहीं हुई हो क्योंकि तुम्हारे क़ातिल अभी भी ज़िंदा हैं और जेल में साँस ले रहे हैं। हाँ! निर्भया वे अभी तक ज़िंदा हैं और हम सभी शर्मिंदा हैं कि तुम्हें अभी तक इंसाफ़ नहीं दिलवा पाए हैं


जबकि सबूतों के तौर पर तुम हमें सौंपकर गई हो वो सारे दस्तावेज, जिनमें दर्ज हैं तुम्हारी वो चीखें जो आसमान को भी थर्रा देने वाली थीं और वो सभी एविडेंस सभी अपराधियों के अपराध की तरफ़ अपनी उँगलियाँ इंगित कर रहे हैं उस घिनौने पाप की गवाह वह बस आज भी लुटी-पिटी-सी खड़ी है एक गैराज में जिसमें तुम्हारी इज्ज़त को तार-तार किया गया था, रौंदा गया था तुम्हारे जिस्म को उन बारह टाँगों से, बारह हाथों से और चौबीस आँखों ने गाड़ दी थी अपनी दृष्टि कीलों की तरह तुम्हारे जिस्म पर। नोचा था तुम्हें सामूहिक रूप से अड़तालीस उँगलियों ने और बारह अँगूठों ने छोड़ दिए थे तुम्हारे ही लहू से तुम्हारे बदन पर अपने निशान। बदन के हर हिस्से पर लिख दी क्रूरता की एक अनंतहीन दास्तान।


तुम्हारे बदन के बाहर ही नहीं, अपितु तुम्हारे अंदरूनी अंगों को भी निकालकर रख दिया बर्बरता से, सबूत के तौर पर और तुम बारह दिनों तक अपने खुले हुए घावों को लेकर जीवित रहीं, इसी आस में कि शायद तुम्हारे दर्द से और तुम्हारे साथ हुई बर्बरता से सिस्टम का दिल पसीजेगा और मुजरिमों को सज़ा मिलेगी लेकिन अफ़सोस ऐसा नहीं हुआ और तुम चली गईं अपने अनशन पर क़ायम रहते हुए। एक बूँद पानी भी नसीब नहीं हुआ तुम्हें।


सबूतों के तौर पर सौंप गई अपना छलनी बदन लेकिन शायद सिस्टम को सबूत पूरे नहीं पड़े इसलिए तुम्हारे क़ातिलों को सज़ा अभी तक नहीं मिली है। अच्छा है निर्भया, तुम जीवित नहीं बचीं और अपनी काया को प्रजातंत्र के हवाले करके चलती बनीं। अगर जीवित रहतीं तो तुम्हें हर पल मरना पड़ता और जीते जी कैसे साबित करतीं कि तुम्हारे साथ बलात्कार हुआ है जब मरकर भी कुछ नहीं कर पाई।


गत सात वर्षों से तुम हमसे दूर हो गई हो, जहाँ से तुम अब कभी भी हमारे बीच में वापस नहीं आ पाओगी। अच्छा है कि तुम यहाँ से बहुत दूर हो, नहीं तो न जाने तुम एक दिन में कितनी बार वीभत्सता का शिकार होतीं और रोज़ाना उसी वेदना से गुज़रतीं क्योंकि कहने को तो भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है, पर न यहाँ कोई लोक दिखता है, न ही कोई तंत्र?


पता है निर्भया, आशा माँ को सम्मान दिया जाता है, एक माँ होने का, निर्भया की माँ होने का। उनकी पीड़ा देखो वो अपनी बेटी की अंतिम इच्छा चाहकर भी पूरी नहीं कर पा रहीं। तुम्हारे नाम पर संस्थाएँ चंदा बटोर रही हैं। अब तो आदत-सी हो गई है ये सब देखने की। घिन आती है समाज की मुख्य धारा से।


जब तुम अस्पताल में थीं न, कैंडल मार्च हुए थे, धरने-प्रदर्शन हुए थे लेकिन अपना-अपना नाम चमकाकर लोग चलते बने। फिर सबने भुला दिया। कुछ भी नहीं बदल पाए ये कैंडल मार्च करने वाले, ये प्रदर्शन और धरना देनेवाले क्योंकि जो तुम्हारे साथ हुआ, वह आज भी हो रहा है।


पर तुम्हारी माँ, आशा माँ का दर्द आज भी वैसा का वैसा है जब उन्हें सबसे पहले तुम्हारे साथ घटी दरिंदगी की सूचना मिलने पर हुआ था जिसे वे आज तक नहीं भूली हैं और शायद कभी भूल भी नहीं पाएँगी। आशा माँ याद करती हैं तुम्हें अपनी प्यास में जब भी वो पानी का घूँट पीती होंगी तो याद आ जाती होगी उन्हें तुम्हारी प्यासी-याचना और आशा माँ की प्यास फिर उनके आँसुओं से भी कहाँ बुझती होगी क्योंकि अंत समय में एक बूँद पानी भी न पिला पाईं अपनी लाड़ली को। आशा माँ और तुम्हारे पिता बदरीनाथ आज भी तुम्हें न्याय दिलाने के लिए दर-दर भटक रहे हैं पर यह भी कैसी विडंबना है कि गत सात वर्षों से कोर्ट में तारीख़ पर तारीख़ पड़ रही है और मुआमला अभी तक लंबित है, कभी किसी कारण से तो कभी किसी कारण से। ईश्वर करे, उनकी मेहनत रंग लाए और वह इस लड़ाई में विजयी हों।


निर्भया जबसे तुम गई हो, हर बेटी की माँ डरती है और पिता बेहाल रहता है कि कहीं उनकी बेटी के साथ भी ऐसी अनहोनी न हो जाए, कहीं फिर कोई दरिंदा उनकी बेटी के साथ भी ऐसा न कर दे, जैसा तुम्हारे साथ हुआ। बेटियों को पढ़ना है, लिखना है, उन्हें भी जीवन में आगे बढ़ना है, उन्हें भी अपने पैरों पर खड़ा करना है पर कैसे? यह एक बहुत बड़ा प्रश्न है हर माँ बाप के लिए। ऐसे माहौल में कैसे अपने बेटियों को घर से बाहर भेजें? मैं भी एक बेटी की माँ हूँ ना इसीलिए मैं भी डरती रहती हूँ।


बलात्कार तो रोज़ होते हैं। छोटी-छोटी बच्चियों को भी दरिंदे नहीं बख़्शते। सभी सामने कहाँ आ पाते हैं। अभी हाल ही में प्रियंका भी तो शिकार हुई हैदराबाद में। बताया होगा उसने लेकिन हम खुश हैं प्रियंका के गुनहगार मार दिए गए। नहीं जानती एनकाउंटर फ़र्ज़ी था या असली लेकिन गुनहगार असली थे। तसल्ली है। उन्नाव में भी यही हुआ। ख़ैर! कैसे कहूँ कि तुम चिंता मत करना, सब ठीक होगा? सच तो यह है, मैं तुम्हें झूठी सांत्वना नहीं देना चाहती। तुमने जाते-जाते अपनी माँ को अपनी अंतिम इच्छा बताई थी कि तुम्हारे बलत्कारियों को मौत की सज़ा ज़रूर मिलनी चाहिए। न जाने तुम्हारी इच्छा कब और कैसे पूरी होगी, न जाने तुम्हारे माँ-बापू की मेहनत कब रंग लाएगी? क्योंकि मुजरिमों के वकील खुले आम आशा माँ को ललकारते हैं कि फाँसी तो अनंतकाल तक नहीं हो सकती।


बेचारी बेबस एक मुजरिम की भाँति इस लड़ाई को लड़ रही हैं।


मेरी प्यारी निर्भया, मेरी सखी, मेरी बहन, बेटी भी कहूँ तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। सच! मैं भी हैरान हूँ हमारे क़ानून की व्यवस्था पर, संविधान की बनावट पर, न्यायपालिका की इतनी धीमी प्रक्रिया पर। यह जो सिस्टम है ना, स्वयं अपराधियों को संरक्षण देता है और बाहर दूसरे अपराध इससे भी अधिक ज़ोर-शोर से बिंदास होने लगते हैं क्योंकि अपराधियों को डर ही नहीं लगता ना। इसीलिए तो रोज़, हर एक घड़ी में अपराधों की लड़ी लगी होती है। ख़ैर, अपराध हैं, आदिकाल से होते आए हैं, इससे इनकार नहीं लेकिन अनंतकाल तक होते रहेंगे, ऐसा हमारे क़ानून की पैरवी करने वाले वकीलों का कहना है। ऐसे लोगों की बदौलत ही तो अपराध और अपराधी दोनो जन्म लेते हैं क्योंकि उनकी तीमारदारी करने के लिए क़ानून की एक लचीली प्रक्रिया मौजूद है।


लेकिन तब अपराध होते थे तो उनकी सज़ा भी होती थी। अपराधी इंसान को खुला भी छोड़ दिया जाता था एक आत्मग्लानि के साथ और उसे अपने पापों की सज़ा भुगतनी होती थी, उस श्राप को भोगते हुए और मृत्युदंड भी दिया जाता था लेकिन तब अपराध की पैरवी करने वाले लोग नहीं थे। इतिहास में कई उदाहरण मौजूद हैं—


सबसे बड़ा उदाहरण है धूमधाम से मनाया जाने वाला त्योहार दशहरा। आप सबको यह बताने की ज़रूरत नहीं कि दशहरा क्यों मनाया जाता है? सब ही जानते हैं। रावण ने सीता का अपहरण किया और लंका में उसे अशोक वाटिका में रखा। उसकी मर्ज़ी के बग़ैर उसे छुआ भी नहीं लेकिन उसने हिम्मत की एक महिला पर कुदृष्टि डालने की और श्रीराम को जनमत का साथ मिला। सिर्फ़ इंसानों ने ही नहीं, वानरों ने भी उनका साथ दिया। एक छोटी-सी गिलहरी भी पीछे नहीं हटी और सेतु निर्माण में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की। जटायु जाम्वंत को हम कहाँ भूल सकते हैं? बात पाप की थी, अपराध की थी, रावण के भाई विभीषण ने भी उसका साथ नहीं दिया और अपना नाम कलंकित करा डाला। आज भी लोग विभीषण को याद तो ज़रूर करते हैं लेकिन मेरे ख़्याल से इज़्जत से नहीं।


एक अमर कहावत बन गई कि घर का भेदी लंका ढाए! ख़ैर पाप का अंत कर दिया गया और आज तक उस रावण को जलाया जाता है हर वर्ष और अनंत काल तक जलाया जाता रहेगा।


हमें सीख लेनी चाहिए इस त्योहार से। क़ानून के यही ठेकेदार क़ानून की पैरवी करने वाले रावण को फूँक देने के बाद प्रथम पंक्तियों में खड़े होकर तालियाँ पीटते हुए दिखाई देते हैं और जय श्रीराम के नारे लगाते हैं, मानो एक पुतले को फूँककर बहुत बड़ा काम कर दिया गया हो। अरे! फूँकना ही है तो फूँको इन अपराधों को फूँकों इन अपराधियों को, जो सरेआम अपराध करते हैं और खुलेआम घूमते हैं। अगर ऐसा नहीं कर सकते तो बहिष्कार हो रावण को हर वर्ष जलाने का। मुझे तो अब तरस आने लगा है रावण पर कि अरबों-खरबों लगाकर महज़ एक पुतले को फूँकने निकल पड़ता है समूचा भारतवर्ष और जो अपराधी वीभत्स अपराध करके खुलेआम साँस ले रहे हैं, उनकी पैरवी करने के लिए स्वयं सरकार उन्हें वकील मुहैया कराती है, संरक्षण देती है। मैं विरोध करती हूँ इस क़ानूनी प्रक्रिया का। बंद करो ये ढोंग नारी को पूजने का।


यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः।


यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्ताफलाः क्रियाः।


मतलब सबको पता है लेकिन इसमें सच्चाई कितनी है। कोरा झूठ और सिर्फ़ किताबी बात रह गई है।


सच तो यह है, यहाँ नारी को सिर्फ़ भोग की वस्तु समझकर उसका भोग किया जाता है। इसके अलावा और कुछ नहीं। बंद करो ये नारा ‘बेटी पढ़ाओ और बेटी बचाओ’ का। बेटी के आत्मसम्मान का यहाँ कोई रक्षक ही नहीं, सभी भक्षक हैं।


निर्भया कोई नहीं सुनेगा आशा माँ की फ़रियाद क्योंकि तुम बेटी आशा माँ की हो ना इन ठेकेदारों में से किसी की नहीं।


मुआफ़ करना निर्भया, उन सबूतों का डी.एन.ए. अभी तक नहीं हो पाया है। सबूत मेल नहीं खा रहे हैं, तुम चली गई हो ना तुम्हारे चीथड़े निराधार हैं। और हाँ, तुम तो एक जीवित सबूत भी छोड़कर गई हो तुम्हारा दोस्त। जो कुछ नहीं कर पाया था। उन ६ दरिंदों के सामने निहत्था, बेबस, लाचार, जो आज भी रातों को उठ बैठता है, उस भयानक दृश्य को सोचकर। आज भी सोए-सोए उसकी सिसकियाँ उसके घरवाले सुनते हैं लेकिन इस गूँगी-बहरी और अंधी प्रक्रिया को क़ुछ सुनाई नहीं देता। अरे! क़ानून तो अंधा होता है, गूँगा और बहरा तो नहीं। क्यों नहीं सुनाई पड़ती आशा माँ की आवाज़, उसकी चीखें, उसकी सिसकियाँ और हमारी फ़रियादें? क्यों-क्यों, ‌आ‌ख़‌िर क्यों? अरे! मोमबत्ती लेकर चलने वालो, कहाँ हो आप सब? क्यों बुझा दी गईं वो मोमबत्तियाँ?


क्या निर्भया को इंसाफ़ मिल गया है?


क्या मुजरिमों को फाँसी मिल गई है?


नहीं! लेकिन हाँ, अपनी-अपनी राजनीति चमकाकर लोग अपनी ये जलती मोमबत्तियाँ लेकर अपने राजनीति के भविष्य को रौशन कर रहे हैं और जल रही है तो सिर्फ़ एक माँ और एक माँ की आशा।


धिक्कार है ऐसी लाचार व्यवस्था पर, क़ानून पर, समाज पर, समाज के ठेकेदारों पर।


क़ानून जन्मजात अंधा नहीं है निर्भया। क़ानून ने पट्टी बाँध रखी है अपनी आँखों पर, जानबूझकर गांधारी बना हुआ है क्योंकि ये सभी अपराधी (दुर्योधन और दुशासन जैसी संतानें) भी तो इसी क़ानून की देवी की संतानें हैं ना निर्भया।


आराम से सोना, कैसे कह दूँ कि रोना मत।


जानती हूँ, तुम्हारी आत्मा भटक रही है, उसे मुक्ति नहीं मिली होगी। मुक्ति तो तब मिलेगी जब तुम्हारे क़ातिलों को सजा-ए-मौत मिलेगी और न जाने कितनी ही निर्भया निर्भया की मौत मरने से बच जाएँगी।


लेकिन मेरी चिट्ठी इन ठेकेदारों तक नहीं पहुँचेगी, निर्भया।


मैं जानती हूँ, नहीं पहुँचेगी।


तुम तक पहुँच गई है लेकिन तुम मत रोना। यह वो धरती है, जहाँ द्रौपदी का अपमान अपने ही घर में हुआ था। सब बड़े-बुजुर्गों के बीच में। किसी ने आकर व्यवस्था के ख़‌िलाफ़ आवाज़ नहीं उठाई थी।


और यह वो धरती है, जहाँ अहिल्या को भी पाषाण होना पड़ा था। एक श्रापित जीवन जीना पड़ा था।


यह वही धरती है, जहाँ स्वयं सीता माँ को अग्नि परीक्षा के बाद भी दोबारा वनवास दिया गया था और उसके बाद भी उन्हें ख़ुद को साबित करने के लिए कहा गया था। धरती का कलेजा भी फट गया था, पुरुष प्रधान समाज की निर्लज्जता के सामने।


कहने को तो यहाँ न्याय तंत्र भी है पर उसके अस्तित्व पर भी बहुत बड़ा प्रश्न चिह्न‍ है?


कहने को तो यहाँ संविधान भी है पर क्या करें ऐसे संविधान का जो ७ वर्षों में भी तुम्हारी आख़‌िरी इच्छा को भी पूरी करने में असमर्थ दिखाई दे रहा है!


आज न्याय प्रणाली ध्वस्त होती दिखाई दे रही है।


आज राजनीतिक पार्टियाँ अपनी दुकानें वैसे ही चला रही हैं।


प्रशासन और शासन उसी ढर्रे पर चल रहा है।


व्यभिचारी आज भी खुले घूम रहे हैं।


पर यह कैसी विडंबना है कि आज सात वर्षों के बाद भी सबकुछ वैसा ही चल रहा है, जैसा तुम छोड़कर गई थीं। घर, परिवार, गली, चौबारे, खेत, खलियान, समाज, देश और उसकी संसद जहाँ ५०० से अधिक प्रतिनिधि बैठकर हम सबकी क़‌िस्मत लिख रहे हैं पिछले ७० वर्षों से पर नहीं बदली है तो बहू-बेटियों की सुरक्षा की गारंटी!


काश कि मेरे बस में होता तो इस संविधान को मैं बदल देती और बलात्कारियों को चौराहे पर सबके बीच मौत के घाट उतार देने का प्रावधान होता ताकि बलात्कार करना तो दूर, कोई किसी की बहू-बेटी की तरफ़ बुरी निगाह भी न डाल पाए।


कहीं भी आशा की ऐसी कोई किरण दिखाई नहीं पड़ रही कि तुम्हारी अंतिम इच्छा तुम्हारी थक चुकी माँ के सामने पूरी हो पाएगी। तुम्हारी माँ थक चुकी है, प्रेस और मीडिया के सवालों का जवाब देते-देते, कचहरी के चक्कर काटते-काटते, पर वो टूटी नहीं है।


यह बात अलग है कि आशा घोर निराशा में जी रही है। फिर भी उसे आशा है कि एक निराशा ख़त्म होगी।


यक्षप्रश्न बस एक ही है हमारे समाज से, हमारे संविधान से, हमारी न्याय प्रणाली से और सभी राजनीतिक पार्टियों से तथा एक-एक जन-प्रतिनिधि से कि क्या यही वह भारत है, जहाँ कहा जाता है कि यहाँ नारी की पूजा होती है, इसीलिए देवता यहाँ वास करते हैं? अरे! पूजा की क्या बात करें, यहाँ तो नारी का सम्मान ही नहीं बचा है आज, तभी तो प्रिय निर्भया तुम्हारे क़ातिल अभी तक ज़िंदा हैं।


काश! यह भारत भारत न होता, यहाँ का यह संविधान न होता, यहाँ भी काश, ऐसे अपराध की सज़ा चौराहे पर फाँसी की होती तो शायद निर्भया तुम निर्भया न होतीं पर सिर्फ़ अपनी माँ की बेटी होतीं।


आज आवश्यकता है, ऐसे अपराधों की त्वरित न्याय व्यवस्था की जिसके लिए अगर संविधान में तुरंत बदलाव लाना पड़े तो उसे लाना चाहिए ताकि और कोई निर्भया न बन सके।


अब और क्या कहूँ? अब विराम देती हूँ अपनी वाणी को और सोचने के लिए मजबूर करती हूँ उनको, जो यह खुला ख़त पढ़ रहे हैं। क्या दिलवा पाएँगे इंसाफ़ तुम्हें? क्या पता कोई चमत्कार हो जाए? इसी आशा के साथ तुम्हारी बहन, सखी और जो भी समझो...बस


अंत में प्रिय निर्भया अपना ख़याल रखना और दोबारा जन्म लेने के लिए सोचना भी मत ना क्योंकि इस धरती पर जो यह भारत देश है, यहाँ नारी की पूजा करने की तो बात सब करते हैं पर उसका सम्मान नहीं करते, उसकी रक्षा नहीं कर सकते!


स्वर्ग में वास हो निर्भया।